कोई आधा, कोई पूरा, तो कोई है दीर्घ,
कोई ऊपर अटके, तो नीचे लटके एक अधीर।
किसी ने पाली पूर्णता समग्र सारी,
रह गया कोई रिक्त आधा अधूरा भी।
किसी पर पड़ा एक डंडा जोर का,
तो बेचारा कोई डंडे दो गया खा।
खिलती सुन्दर एक चोटी एक पर,
एक इठलाती बड़ी, दो लगा कर।
कभी आ जाता बीच में कोई सरफिरा,
अजीब सा टेढ़ा-मेढ़ा, कुरूप-कूबड़ा।
किसी का पेट खाली, कोई तीखा दुर्जन,
कोई ज्ञानी भारी, कोई सीधा सज्जन।
बिरला कोई ऋषि का आशीष बरसाता,
प्रेम से एक भाई अहा-अहा चिल्लाता।
किसी में है मादक मंदिर घण्टे की ध्वनि,
स्वर में किसी के ऊष्मा ऊर्जा सूरज सी ।
नीड़ भी हैं इनके, निश्चित ही निपट निराले,
कंठ और जिव्हा के तो हैं यह बड़े लाडले।
सुमेल कर बनाते हैं यह सुसभ्य समाज,
लगाते अलंकार जब, करते सन्धि समास।
बिखरे पड़े मोती, ओने-कोने, तितर-बितर,
बुद्ध बुनता माला इनकी, एकसूत्र पिरोकर।
हम, हमारा जीवन और यह संसार सारा,
कहाँ हैं अलग? वह भी तो है इन अक्षरों सा।
कोई आधा, कोई पूरा, तो कोई है दीर्घ,
कोई समाधिस्थ, एक औन्धा पड़ा विरक्त फकीर।
करें सन्धि, बने संतोषी, सजायें अलंकार आज,
सुमेल कर बनायें, चलो एक सुसभ्य समाज।
आओ अनेकता में एकता का दिव्य पाठ पढ़ें,
छोटे-छोटे अक्षरों से, हम भी कुछ अच्छा सीखें।
मिलकर गायें जीवन आनंद का मधुर गीत,
गीता के श्लोकों से सजायें हृदय “शब्द-संगीत”।
– श्री गीतगोविन्द