शब्द तो निर्जीव से होते हैं,
भाव तो उनमें हम भरते हैं।
मृदु कहें, तो लगती प्रेम प्याली,
कह दें जोर लगा, लगती गाली।
कुछ शब्द बड़े बेदम बेजान,
कुछ चलते अकड़ सीना तान।
काला अक्षर भैंस बराबर,
हो न अगर तुम्हें शब्दज्ञान।
शब्द कुछ होते निर्जीव के भी,
खटारा मोटर खट-खट कुछ कहती।
बिखरी हर जगह शब्दों की टोली,
जीव-जंतुओं की भी अपनी बोली।
संगीत बजता दिखे मुझे तो उनमें,
शोर शराबा न कभी भी सुनी मैंने।
व्यर्थ सम्भाषण न करते कोई कभी,
न झूठ, न चापलूसी, न निंदा, न चुगली।
क्या करोगे तुम विस्तृत व्याकरण?
क्या करोगे ढोकर पांडित्य शुद्धता?
भाव ही न पहुँचे कोमल हृदयों तक,
तो कैसा शब्दज्ञान? कैसी प्रबुद्धता?
– श्री गीतगोविन्द