“योग आरोहण”
दिन-रात, सुख-दुख,
धूप-छाँव, ऊंच-नीच,
ठण्ड-गर्म, कठोर-नर्म,
घर-बाहर, द्वन्द बीच।
दो धारों के प्रवाह में लड़खड़ाती।
हानि-लाभ, छोड़-पाने, फड़फड़ाती।
काठ की ही पतवार द्वारा चलती,
मल्लाह के हाथों, पर उछलती।
न कुछ खाती, न पीती कुछ भी,
नहीं बोलती कुछ, नाव काठ की।
अनेक थपेड़ो को सहती, लहरों से लड़ती,
होकर स्थिर, किन्तु तब भी गणतव्य पाती।
बवंडर के भवरों को भी बना साथी,
उड़ान ऊँची भरती, लक्ष्य को साधती।
निर्मोही, निर्लिप्त, निरभार, असंग,
प्रेम नियंत्रित, ज्ञान प्लवित पतंग।
है योग सबकुछ सहना, कठोर संयम-नियम,
चलना धैर्य धारणकर, संतुलन ही जीवन।
सद्गगुण है योग, मात्र एक साधन नहीं,
स्वयंमेव है जीवन, अंग जीवन का नहीं।
सेवा, पूजन एवं सदुपयोग हेतु प्रत्येक क्षण है,
संकल्पित हैं जो, जिनका ध्येय कुछ प्रण है।
धन्य है वह योगी, जन्म उसका सफल है,
जीवन उनका अनुकरणीय, सकल है।
संतुलन में ही सुख जीवन आनंद,
न भाग चहुओर मेरे मूढ़ व्यग्र मन।
जिस योग का ज्ञानी मुनियों ने किया वरण,
चल मार्ग अब वही, करले तू भी योग आरोहण!